शिव और रुद्र ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शिव को रुद्र इसलिए कहा जाता है कि ये रुत् अर्थात् दुख को विनष्ट कर देते
हैं।
“यथा-रुतं दुखंद्रावयति नाशयतीतिरुद्रः । रुद्राष्टाध्यायीका विशेष महात्म्यहै।”
शिवपुराणमें सनकादिऋषियों के प्रश्न पर स्वयं शिवजी ने
रुद्राष्टाध्यायीके मंत्रों द्वारा अभिषेक का महात्म्यबताते हुए कहा है कि मन, कर्म तथा वाणी से परम पवित्र तथा सभी प्रकार की असशक्तियोंसे रहित हो कर भगवान शूलपाणिकी प्रसन्नता के लिए रुद्राभिषेक करना चाहिए। इससे वह भगवान शिव की कृपा से सभी कामनाओं को प्राप्त करता है और अंत में परम गति को प्राप्त होता है। रुद्राभिषेक से मनुष्यों की कुलपरंपराको भी आनंद की प्राप्ति होती है। —!!! हर हर – “महादेव” !!!
शिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर क्या चढ़ाने से क्या फल मिलता है, आय जाने !
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शिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर दूध अर्पित करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है !
शिवलिंग पर दही अर्पित करने से हमें जीवन में हर्ष और उल्लास की प्राप्ति होती है ।
शिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर शहद चढाने से रूप और सौंदर्य प्राप्त
होता है, वाणी में मिठास रहती है, समाज में लोकप्रियता बढ़ती है । शिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर घी चढ़ाने से हमें तेज की प्राप्ति होती है।
शिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर शक्कर चढ़ाने से सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
शिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर इत्र चढ़ाने से धर्म की प्राप्ति होती हैं। शिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर सुगंधित तेल चढ़ाने से धन धान्य की वृद्धि होती है, जीवन में सभी भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है । शिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर चंदन चढ़ाने से समाज में यश और मान-सम्मान की प्राप्ति होती है।
शिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर केशर अर्पित करने से दाम्पत्य जीवन सुखमय होता है, विवाह में आने वाली समस्त अड़चने दूर होती है, मनचाहा जीवन साथी प्राप्त होता है विवाह के योग शीघ्र बनते है
अपनी प्राचीनतम, पवित्रता एवं पापनाशकता आदि के कारण प्रसिद्ध उज्जयिनी की प्रमुख नदी शिप्रा सदा स्मरणीय है। यजुर्वेद में शिप्रे अवेः पयः पद के द्वारा इस नदी के स्मरण हुआ है। निरू- क्त में शिप्रा कस्मात ? इस प्रश्न को उपस्थित करके उत्तर दिया गया है कि – शिवेन पातितं यद रक्तं तत्प्रभवति, तस्मात। अर्थात शिप्रा क्यों कही जाती है ? इसका उत्तर था – शिवजी के द्वारा जो रक्त गिराया वही यहाँ अपना प्रभाव दिखला रहा है – नदी के रूप में बह रहा है, अतः यह शिप्रा है।
शिप्रा और सिप्रा ये दोनों नाम अग्रिम ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए हैं। इनकी व्युत्पत्तियाँ भी क्रमश: इस प्रकार प्रस्तुत हुई है – ‘शिवं प्रापयतीति शिप्रा’ और ‘सिद्धिं प्राति पूरयतीत सिप्रा ‘ । और कोशकारों ने सिप्रा को अर्थ करधनी भी किया । तदनुसार यह नदी उज्जयिनी के तीन ओर से बहने के कारण करधनीरूप मानकर भी सिप्रा नाम से मण्डित हुई । उन दोनों नामों को साथ इसे क्षिप्रा भी कहा जाता है। यह उसके जल प्रवाह की द्रुत- गति से सम्बद्ध प्रतीत होता है। स्कन्दपुराण में शिप्रा नदी का बड़ा माहात्म्य बतलाया है। यथा –
नास्ति वत्स ! महीपृष्ठे शिप्रायाः सदृशी नदी ।
यस्यास्तीरे क्षणान्मुक्तिः कच्चिदासेवितेन वै।।
हे वत्स ! इस भू-मण्डल पर शिप्रा के समान अन्य नदी नहीं है। क्योंकि जिसके तीर पर कुछ समय रहने से, तथा स्मरण, स्नानदा- नादि करने से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
वहीं शिप्रा का उत्पत्ति के सम्बन्ध में कथा भी वर्णित है, जिसमें कहा गया है कि – विष्णु की अँगुली को शिव के द्वारा काटने पर उसका रक्त गिरकर बहने से यह नदी के रूप में प्रवाहित हुई। इसीलिये विष्णु-देहात समुत्पन्ने शिप्रे ! त्वं पापनाशिनी – इत्यादि पदों से शिप्रा की स्तुती की गई है। वहीं अन्य प्रसग से शिप्रा को गड़गा भी कहा गया है। पञ्चगङ्गाओं में एक गङ्गा शिप्रा भी मान्य हुई है।